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पिछली जनगणना में लाखों परिवारों ने खाली छोड़ दिया था जाति का कॉलम, इस बार उनके लिए क्या बंदोबस्त?

पिछली जनगणना में लाखों परिवारों ने खाली छोड़ दिया था जाति का कॉलम, इस बार उनके लिए क्या बंदोबस्त?

देश में साल 1931 में जाति जनगणना हुई थी, लेकिन उसके बाद ये प्रोसेस बंद हो गई. अब लगभग 100 सालों बाद एक बार फिर कास्ट सेंसस का एलान हुआ है. केंद्र सरकार के इसे मंजूरी देने के पीछे कई कयास लगाए जा रहे हैं. लेकिन इस बीच कई सवाल आते हैं. मसलन, कास्ट सेंसस में वैसे लोगों का क्या होगा, जो खुद को किसी जाति में नहीं रखते, या फिर ऐसे लोगों की मौजूदगी से जनगणना पर क्या असर हो सकता है?

साल 1931 का सेंसस ब्रिटिश राज में हुआ था. तब जनगणना आयुक्त जनरल जॉन हेनरी हटन ने माना था कि देश को समझने के लिए जातियों की गिनती बहुत जरूरी है. वे इसे ब्रिटिश राज को और मजबूत बनाने के लिए समझना चाहते थे और कमजोर तबके को फायदा मिले, ऐसा कोई इरादा नहीं था. इस सेंसस में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी-अगड़ी जातियों और उनके पेशों की भी डिटेलिंग हुई. इसके 10 सालों बाद जब अगले सेंसस का वक्त आया, दूसरा वर्ल्ड वॉर चल रहा था. लड़ाई के कारण प्रोसेस आधी-अधूरी रह गई. 

आजाद भारत में जब पहली बार ये प्रोसेस होनी थी, तब सवाल आया कि क्या कास्ट सेंसस कराया जाए. तत्कालीन सरकार ने इसके खिलाफ फैसला लिया. इसके कई कारण थे लेकिन असर वजह ये थी कि सामाजिक और राजनीतिक टकराव न हो. सरकार चाहती थी कि लोग खुद को भारतीय नागरिक की तरह देखें, न कि किसी कास्ट को ऊपर रखें. लेकिन ओबीसी की बात चलने पर साल 1931 का सेंसस ही आखिरी आधिकारिक डेटा देता था, जिसका आज तक इस्तेमाल होता रहा. 

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साल 2011 में सोशियो इकनॉमिक एंड कास्ट सेंसस के दौरान जब सरकार ने जाति संबंधी जानकारी पर काम शुरू किया, तब लाखों लोगों ने जाति बताने से इनकार कर दिया, या लिखा कि वे जाति में यकीन नहीं करते. माना जा रहा है कि अबकी बार इसके लिए भी कोई अलग कॉलम आ सकता है ताकि उन लोगों को भी काउंट किया जा सके जो खुद को जातियों से अलग रखते हैं. 

दरअसल पिछली जनगणना में जब 46 लाख परिवारों ने अपनी जाति नहीं बताई तो उसे डेटा अनयूजेबल में डाल दिया गया क्योंकि तब ऐसा कोई कॉलम नहीं था. बाद में सरकार ने माना कि इतनी बड़ी आबादी के लिए इस तरह की टर्म का इस्तेमाल सही नहीं. इसके बाद ही जाति को न मानने वालों को भी मान्यता देने की बात उठने लगी.

हो सकता है कि आने वाले सेंसस में नो कास्ट एफिलिएशन का विकल्प भी मिले. फिलहाल ये ऑप्शन औपचारिक तौर पर आया नहीं है.  

फिलहाल ये साफ नहीं है कि खुद को जाति से बाहर रखने वाला तबका कौन सा है, या मिलाजुला है, लेकिन देश में धर्म न मानने वाले भी बढ़ रहे हैं. पिछले सेंसस में धर्म के लिए पूछे कॉलम में अदर्स का ऑप्शन था, जिसमें नो रिलीजन भी शामिल है. उस समय लगभग 29 लाख लोगों ने कहा कि उनका कोई धर्म नहीं. हालांकि इसमें से महज कुछ हजार ने खुद को साफ तौर पर नास्तिक कहा. गैलप ने भी साल 2012 में एक सर्वे किया था, जिसके अनुसार, देश में 81% लोग खुद को धार्मिक, 13% गैर-धार्मिक, और 3% अपने को नास्तिक मानते हैं. 

जब लाखों लोग खुद को नो कास्ट कहते हैं या जाति कॉलम को खाली छोड़ते हैं तो सरकारी डेटा अधूरा रह जाता है. यह तय करना मुश्किल होगा कि कौन किस रिजर्वेशन कैटेगरी में आएगा. साल 2011 की SECC में यही हुआ था, जब स्पष्टता न होने की वजह से सरकार को डेटा अनयूजेबल कहना पड़ गया. वैसे अगर ये आबादी बढ़े तो इसका असर आरक्षण नीति पर काफी अलग तरह से हो सकता है. बता दें कि बहुत से देशों में ये कैटेगरी होती है, जिनमें से ज्यादातर विकसित देश हैं. 

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Written by Buzzapp Master

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